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गोंडवाना के महान योद्धा, वीर नारायण सिंह की जयंती

 संवाददाता महेश कश्यप।

भानपुरी (बस्तर), 

दिनांक 10/12/2023, सोनाखान नाम से ही स्थान का परिचय हो जाता है कि सोने का भंडार धरती के गर्भ में भरा पड़ा हो। इस राज्य की नींव बिंझवार गोंड राजाओं ने लांजीगढ़ पतन के बाद वहां से भागे हुए लोग सघन वनों से आच्छादित इलाके में अपना माल असवाब लेकर आश्रय के लिए भटक रहे थे। लांजीगढ़ के तेकाम-नेताम राजाओं के सेनापति दरबारी लोग बिंझवार गोंड थे। इसी वंश ने 17वीं सदी में सोनाखान राज्य की स्थापना की थी।वंश एवं आगमन विषय पर मतभेद हो सकता है, पर उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर वीर नारायण के पूर्वज गोंड जाती के थे। इनके पूर्वज सारंगढ़ के जमींदार के वंश के थे। इसी वंश ने 16वीं सदी में सोनाखान सूबा की स्थापना की थी। बहरहाल जो भी हो वर्तमान में छत्तीसगढ़ के प्रदेश मुख्यालय रायपुर से कसडोल होकर सोनाखान जाना पड़ता है। गोंड मारु के डर से इनके पूर्वजों ने गोंड से बिंझवार जाति में परिवर्तन किया तत्कालीन गैर लोग गोंड नाम बताने पर मार डालते थे, तब गोंडो ने अपने को बिंझवार बताया ,इस नाम से आज भी गोंडमारु नामक गांव है। चूंकि उन दिनों दिल्ली के तख्त में मुस्लिम शासक विराजमान थे।

 वर्तमान सम्पूर्ण मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर, बिहारप्रान्त का रोहतासगढ़, अंशतः बंगाल दामोदर घाटी तक, उड़ीसा, तेलंगाना का आदिलाबाद, दक्षिण महाराष्ट्र गोदावरी तक विस्तृत भूभाग गोंड़वाना में आता था। विदर्भ के कुछ क्षेत्रों में नागपुर जहां नागवंशियों का राज्य था। मुस्लिम सेनापति के आक्रमण के बाद कुछ गोंड राजाओं ने इस्लाम धर्म कबूल कर लिये। धर्म-अपरिवर्तित गोंड राजाओं से दुश्मनी चली। धर्म परिवर्तित राजाओं के द्वारा बहुतायत अत्याचार किये गये। धर्म परिवर्तित राजा उन दिनों गोंडमारु के नाम से प्रसिद्ध थे। यदि हम तथ्यों पर नजर डाले तो उल्लेखनीय बातें दृष्टिगोचर होती है कि वीर नारायण के पूर्वज सारंगढ़ से आये बिशाही ठाकुर सोनाखान जमींदारी वंशज के थे। सोनाखान गांव का प्राचीन नाम सिंघगढ़ था। कालांतर में सिंघगढ़ से सोनाखान हुआ, वंशावली पत्र से ज्ञात होता है कि बिंझवार खानदान के दो राजपुत्र पर्यटन करने निकले। पहले फुलझर स्टेट में रहे उस समय रतनपुर के राजाओं की शानों शोकत की बातें सुनकर राज-दरबार रतनपुर आये।राजा से भेंट हुई तब राजपुत्र बिशाही ठाकुर को नौकरी में रख लिया। प्रशन ठाकुर फुलझर में रह गये। बिशाही ठाकुर रतनपुर के राजा के साथ रहे।सन् 1549 की एक घटना है कि बिशाही ठाकुर ने एक कटार से तीन बाघ मार डाले।एक बार युद्ध में बहादुरी दिखायी थीं जिससे रतनपुर के राजा बिशाही ठाकुर को लवन में जागीर दी। (1) बिशाही ठाकुर के बाद, (2) लुकार वरिहा, (3) संघिसायवरिहा, (4) धनक वरिहा एवं (5) माघो वरिहा हुए।माघो वरिहा ने लोहे की सख्त जंजीर को एक हाथ से तोड़ दिया था तब बहादुरी से खुश होकर रतनपुर के राजा ने इनाम में उन्हें एक तालुका दिया था। इसके बाद सन् 1663 में इन्हें 84 गाँवों का दीवान बना दिया गया। (6) बन्धन वरिहा, (7) मुरारी वरिहा, (8) सिन्धसाय वरिहा, (9) गज प्रताप वरिहा, (10) फत्तेसिंह वरिहा, (11) चन्द्रसाय दीवान, (12) रुद्र साय दीवान, (13) दलसाय दीवान, (14) रामसाय दीवान, रामसाय दीवान वीर नारायण सिंह के पिता थे। वर्तमान में सोनाखान गांव में अब जमींदार का महल नहीं है किन्तु अवशेष के रूप में केवल खंडहर है। गांव के पश्चिम में एक छोटी पहाड़ी है जिसका नाम कुर्रुपाट डोंगरी हैं। सुरक्षित कुर्रुपाट ऐसा स्थान है जहां साधारणतया कोई जा नहीं सकता उसका रास्ता जान सकना कठिन था। यहां छोटी सी झील है जहां सदैव पानी रहता है, बहुत ही मनोरम है। कुर्रुपाट गोंड-बिंझवार राजाओं के देवता है। यह वही स्थल है जहां वीर नारायण कुर्रुपाट देवता की पूजा करते थे। कुर्रुपाट के उत्तरी छोर में बड़े तालाब राजा सागर तथा दक्षिण में एक तालाब मन्दसागर जिसे वीर नारायण के द्वारा खुदवाये गये थे। वे यहीं स्नान किया करते थे।आज की बस्ती नयी हैं, पुरानी बस्ती तालाब से लगीं हुई थी। माह दिसम्बर 1857 में इन्हीं बस्तियों पर ब्रितानियों ने हमला कर बर्बर अत्याचार किये थे। अंग्रेजों ने इन बस्तियों को तीनों ओर से घेर कर आग लगा दी थी तांडव मचा हुआ था।अंग्रेजों ने मासूम बच्चों को पकड़ कर धधकते आग में झौंक दिया था। अंधाधुंध गोलियां चलाकर सैकड़ों निर्दोष नर-नारियों को मौत की नींद सुला दिया था तथा भीषणतम अमानवीय अत्याचार करने से भी नहीं चूके थे, आसपास के बस्तियों के लोग संभावित भय से घर छोड़कर जंगलों की ओर भाग गये थे। कुर्रुपाट डोंगरी में युवराज नारायण सिंह के वीरगाथा का जिंदा इतिहास दफन हैं जहां पुरातत्व विभाग द्वारा कुछ खुदाई की गयी हैं। युवराज नारायण सिंह के पास एक घोड़ा था जो कि स्वामीभक्त था जिसका रंग कबरा था, वे घोड़े पर सवार होकर सूबे का भ्रमण किया करते थे।प्रजा के दुखदर्द सुना करते थे। सोनाखान इलाके में एक नरभक्षी शेर का आतंक फैला था। मनुष्यों एवं पालतू जानवरों को मारकर खा जाता था।प्रभावित क्षेत्र की प्रजा जमींदार नारायण सिंह से सुरक्षा की मांग करने लगे।बहादुर युवराज नारायण सिंह 35 वर्ष के हष्ट-पुष्ट, बलिष्ट सुदर्शन नौजवान थे। उनमें अपूर्व उत्साह था, प्रजा की सेवा करने हमेशा तत्पर रहा करते थे।उन्होंने दरिन्दे शेर को मार डालने की ठान ली। वे हमेशा बन्दूक लेकर नरभक्षी शेर को जंगल के बीहड़ों में खोजते रहे। बहुत दिनों तक शेर का पता नहीं लगा, अचानक एक दिन रायपुर के कस्बाई क्षेत्र में उत्पात मचाने लगा। युवराज नारायण सिंह मुकाबले के लिए शेर के सामने लगभग निहत्थे खड़े हो गये, शेर ने युवराज पर आक्रमण कर दिया, मुकाबला होने लगा, तब म्यान से तलवार निकाल कर शेर को मार डाला। शेर तो आखिर शेर ही था लेकिन वे सवा-शेर थे, वे सचमुच में गोंडवाना के शेर थे। इस बहादुरी से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने वीर की पदवी से सम्मानित किया तब से उनके नाम के आगे वीर जुड़ गया और वीर नारायण सिंह नाम से जाने जाते है। अपने अतीत पर अपने इतिहास पर हमें गर्व है। किन्तु अपने गौरव से परिपूर्ण अतीत के गौरव गाथा को गोंड़वाना भूभाग के कितने लोग जानते है। गोंड़वाना के शूरवीरों में वीर नारायण सिंह का नाम प्रथम पंक्ति में आता है। वीर नारायण सिंह डरपोक आदमी को पसंद नहीं करते थे। जैसा नाम वैसा काम था। प्रकृति का प्रकोप कहें सन् 1856 में इलाके में सूखे के कारण भयानक अकाल पड़ा। सूबे की प्रजा दाना पानी के अभाव से विचलित हुई। इलाके में ब्रिटिश साम्राज्य को पैर पसारे तीन साल हुए थे। अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर इलियट और कैप्टन स्मिथ थे। कसडोल गांव के मिश्र परिवार पर अंग्रेजों की विशेष कृपादृष्टि थी, चूंकि उस समय आला दर्जे के शोषकों एवं जमाखोरों में उनकी गिनती होती थी। ब्रिटिश उपनिवेशवाद देशी रियासतों के राजा एवं जमींदारों पर विश्वास नहीं कर पा रहा था।सभी राजाओं जमींदारों को अपना शत्रु बनाना चाहती थी। साम्राज्यवाद की एक नयी चाल एक नये वर्ग का उदय करना जो उसी देश के देशद्रोही को ढूंढ निकालना था, यह वर्ग था सूदखोर, जमाखोर, शोषक वर्ग। साहूकारों ने ब्रिटिशों की कृपा से समूचे गोंड़वाना में अपना तंत्र बिछा दिया। जमाख़ोरी और ब्याज का धंधा आदि से महाजन वर्ग को आसमान छूने में देरी नहीं लगीं। पहले देहात में अन्न पर्याप्त मात्रा में इकट्ठा रहता पर जमाखोरों के चलते अन्न गायब होना स्वाभाविक था।सूखे की आड़ लेकर यह वर्ग लोगों को शोषण का शिकार बना रहे थे।इनके आगमन से देहात में दरिद्रता प्रारंभ हो चुकी थी।किसान भूख से तडफने लगे थे।कसडोल गांव का मिश्रा परिवार भी इन्हीं साहूकारों में से एक था। इलाका दुर्गम होने के बावजूद शोषण का जाल फैलाने में इनके करिन्दे भरपूर श्रम करते थे। उपज होते ही करिन्दे औनेपौने भाव से अन्न खरीद लिया करतें थे। ब्याज का व्यवसाय भी चालू किया।भांडे-बर्तन, गहने-जेवर, भूमि इत्यादि रखकर चक्रवृद्धि ब्याज से चन्द समय में प्रथम श्रेणी के शोषक हो गये थे। राज्य की प्रजा बिना अन्नजल की भयावह संकट से चिंतित होकर सोनाखान में वीर नारायण सिंह की बैठक में इकट्ठे हुए। चर्चा में तय हुआ कि कसडोल वाले मिश्रा महाजन से अन्न कर्ज में लिया जावे जिसे ब्याज भी दिया जावेगा। राज्य में सूखे से उत्पन्न अकाल की समस्या से प्रसन्न हो रहे मिश्रा परिवार ज्यादा ब्याज तथा अधिक लाभ के लालच में वीर नारायण सिंह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। कुर्रुपाट वीर नारायण सिंह का डेरा था। कुर्रुपाट का जल हाथ में लेकर प्रमुखों ने कसम खायी अब हम महाजनों को कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे। प्रमुख साथियों से वीर नारायण सिंह ने पूछा आप लोग लड़ेंगे कि नहीं, सभी ने एक साथ बुलंद आवाज में कहा लड़ेंगे तब वीर नारायण के नेतृत्व में हजारों की तादाद में किसान भाई कसडोल गांव की ओर चल पड़े।

 

वीर नारायण अपने कबरे घोड़े पर सवार होकर कसडोल पहुंचे। पुनः कर्ज के बतौर अन्न देने का आग्रह किया किंतु जमाखोरों पर जूँ तक नहीं रेंगा, अंततः वीर नारायण से रहा नहीं गया, जमाखोरों के अनाज के गोदामों पर धावा बोलकर अपने कब्जे में कर लिया और गांव के लोगों के बीच जरुरत के हिसाब से बांट दिया।सन् 1856 की यह क्रांतिकारी घटना थी। दाने-दाने को मोहताज लोगों के लिए संघर्ष की यह मिसाल अनुकरणीय था। राज्य का स्वामी और प्रजा का सेवक की भूमिका एक प्रकृति पुत्र होने के नाते दायित्व का निर्वाह बखूबी किया। इस घटना की सूचना उन्होंने स्वयं अंग्रेजों को दी। महाजनों ने अपना शिकायती पत्र डिप्टी कमिश्नर को भेजा। कसडोल का मिश्रा परिवार अंग्रेजों का चमचा था। इस कारण रिपोर्ट दर्ज होते ही डिप्टी कमिश्नर इलियट ने 24 अक्तूबर सन् 1856 को फौज की टुकड़ी वीर नारायण की गिरफ्तारी वारंट लेकर भेज दिया।उन्हें पता था इतने सहज गिरफ्त में नहीं आने वाले हैं। धोखा देकर देशद्रोही, लुटेरा आदि के आरोप लगाकर गिरफ्तार कर रायपुर ले जाने में सफल हुए। वीर नारायण सिंह की गिरफ्तारी से राज्य की प्रजा में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की आग सुलगने लगी। वे इधर मौके का फायदा उठाकर एक दिन बंदीगृह से भाग निकले। प्रजा को जब इस बात का पता चला कि वीर नारायण सिंह बंदीगृह से बाहर आ गये हैं तो उनमें अपूर्व उत्साह था। वीर नारायण सिंह के नेतृत्व में गोंड, कंवर, धनुहर, बिंझवार, किसानों और नौजवानों ने बंदूकें, तीर-धनुष, भाला, बरछी एवं तलवार से लैस होकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संग्राम में कूद पड़े थे। सन् 1856 में सम्पूर्ण गोंड़वाना में चिंगारी सुलग चुकी थी। 

राजा शंकरशाह-रघुनाथ शाह, जमींदार बापूराव शेंडमाके, अत्मूरी सीतार रम्यैया गदर की आग से खेल रहे थे। प्रत्येक लड़ाइयों में अंग्रेजों ने फूट या छल का सहारा लिया। अधिकांश महाजन वर्ग ने सामंतशाही वर्ग को अपने साथ कर लिया। एकमात्र सम्बलपुर के क्रांतिकारी सुरेन्द्रसाय को छोड़कर बाकी सभी जमींदारों ने अंग्रेजों का साथ दिया। देवरी के जमींदार ने वीर नारायण सिंह के सगे बहनोई होने के बावजूद अंग्रेजों का साथ दिया, बिलासपुर के जमींदार ने अंग्रेजों को फौजी सहायता की। बिलाईगढ़ एवं भटगांव के जमींदारों ने भी अंग्रेजों को अनेक तरह से मदद की। अंग्रेजों के पैर के तलुवे चाटने वाले मराठे जमींदारों के विश्वासघात के कारण इतने बड़े संघर्ष को पराजय झेलनी पड़ी।महाजन तथा सामंती वर्ग के खिलाफ तीव्र घृणा के परिणामस्वरूप कोटगढ़ एवं खरौद जाकर अंग्रेजों के दलाल मिश्रा परिवार के लोगों को खत्म कर दिया। एक गर्भवती महिला एवं उसका एक पुत्र बच गये थे। वीर नारायण सिंह अपने बहादुर सैनिकों के साथ ब्रिटिश सैनिकों पर गौरिल्ला हमला किया करते थे। वीर नारायण कुर्रुपाट में विश्राम कर रहे थे।सुरक्षित कुर्रुपाट का मार्ग जन सकना कठिन था परंतु रात में जासूसों द्वारा बताये मार्ग से होकर पहुंचे ब्रिटिश सिपाहियों ने हमला कर वीर नारायण को घेरकर बंदी बना लिया, वह ब्रिटिश गाड़ी में नहीं बैठें अपने कबरे घोड़े पर सवार होकर रायपुर पहुंचे। उन पर पहिले से ही बंदीगृह से भागने का आरोप था दूसरा विद्रोह का, ब्रिटिश हुकूमत इतनी भयभीत हो चुकी थी कि अब वह पुनः बंदीगृह में रखने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स-इलियट के कोर्ट में पेश किया गया। वीर नारायण सिंह पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया तथा उन्हें प्राणदंड की सजा दी गई। 

स्वाधीनता आंदोलन के महान योद्धा गोंड़वाना के वीर सपूत को 10 दिसम्बर सन् 1857 को रायपुर के चौराहे पर बांधकर फॅासी दी गई। गोंड़वाना क्षेत्र में दहशत फैलाने की नियत से कई दिनों तक लाश को वैसे ही टंगाकर रखा गया यह दिखाने के लिये कि इसके बाद अब कोई ब्रिटिश हुकूमत से विद्रोह न कर सकें। 19 दिसम्बर 1857 को दसवें दिन लाश को परिवार वालों को सौंपा गया। सम्बलपुर के महान क्रांतिकारी सुरेन्द्र साय के मार्गदर्शन एवं सैनिक सहायता से मजबूत होकर वीर नारायण सिंह के पुत्र गोविन्द सिंह ने अंग्रेजों का साथ देने वाले देवरी के जमींदार महाराज साय की गर्दन तलवार से एक ही वार में काट दी। बदले की तीव्र भावना से प्रेरित होकर अंग्रेजों ने सोनाखान के गांवों को बुरी तरह से जला दिया। वीर नारायण सिंह के सुपुत्र गोविन्द सिंह परिवार के लोगों के साथ पद्मपुर की तरफ निकल पड़े। मार्ग में अनेक गांवों को पार करते हुए कष्टप्रद लम्बी यात्रा कर फुलझर जमींदार के यहां पहुंचे। उन्हें रोजमर्रे के गुजर-बसर के लिये जमींदार ने जीने लायक काफी जमीन दी। गोंड़वाना के मातृ-पितृ शक्तियों ने स्वाधीनता की लंबी लड़ाई में अपने राजपाट एवं स्वयं को दांव में लगा दिया था।

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